नारी पर कविता

अबला नहीं सबला

हम कहते हैं अबला नहीं
सबला है नारी। 

उसने बंधनों को तोड़ 
दासता की चूनर उतारी।
यथार्थ के धरातल पर 
ऊंचाईयों की छलांग है मारी। 
फिर क्यूं आज उसे अपनी ही अस्मिता 
बचाना है भारी। 
हम कहते हैं अबला नहीं 
सबला है नारी।
देवी है ,शक्ति है
 ममता की मूरत है नारी। 
धरती पर दिखा करिश्मा 
चांद पर पहुंची है नारी।
 घर आंगन ही क्या चमन
 सारा महकाया है उसने
 संयम,लाज ,श्रद्धा ,विश्वास 
गुणों की है भरमारी।
 फिर क्यों आज उसे अपनी ही अस्मिता
बचाना है भारी।
 हम कहते है अबला नहीं
 सबला है नारी।
गुलामी के बंधनों को तोड़ 
हम बढ़ रहे हैं आगे।
 नित नए रंगों से रंग रहे 
जीवन के धागे।
 दिन बदले, रातें बदली 
बदल जीवन के सांचे।
पर न बदली है, नियत 
न बदला है, ये समाज
 न बदली है सोंच हमारी। 
फिर क्यों आज भी उसे अपनी ही अस्मिता बचाना है भारी। 
हम कहते है अबला नहीं 
सबला है नारी।
 रम्भा है ,वह उर्वशी भी है
पुरषों की सहचरिका भी।
पद्मिनी है वह ,दमयंती भी 
सुंदरता की मूरत भी।
अहिल्या है वह ,सीता भी 
पवित्रता की देवी भी। 
जीजाबाई है वह ,लक्ष्मीबाई भी 
शक्ति की पहचान भी। 
गार्गी है वह,कल्पना चावला भी 
बुद्धिशाली भी। 
सब कुछ है,सब में समाहित है
 सब पर है भारी।
 फिर क्यों आज उसे अपनी ही अस्मिता
 बचाना है भारी, बचाना है भारी।
                          शांभवी त्रिपाठी

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